Tuesday, June 1, 2021

परामर्श के प्रकार

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परामर्श के निम्नलिखित तीन प्रकार बताए गए हैं: -

1.         निर्देशात्मक परामर्श,

2.         गैर -निर्देशात्मक परामर्श, और

3.         उदार या सहकारी (Eclectic or cooperative) परामर्श।

 

1.         निर्देशात्मक परामर्श . जी. विलियमसन ने 1930 के दशक में परामर्श का एक व्यापक सिद्धांत विकसित किया। इसके अनुसार काउंसलर क्लाइंट को निर्देश जारी करता है और एक केंद्रीय भूमिका निभाता है क्योंकि यह माना जाता है कि मुवक्किल की समस्या का समाधान कई कारणों से  क्लाइंट की पहुंच से दूर होता है। काउंसलर, क्लाइंट के व्यवहार को परिवर्तित करने के लिए सूचना, ज्ञान, व्याख्या, स्पष्टीकरण आदि का उपयोग करता है। विलियमसन ने सुझाव दिया है कि काउंसलर को क्लाइंट में व्यवहार की कमी का अच्छी तरह से आकलन करके एक अनुमान पर पहुंचना होता है, और फिर समस्या से निपटने के लिए एक अनुरूप प्रक्रिया तैयार करनी होती है।

निर्देशात्मक परामर्श की मान्यताएँ

                                               

1. काउंसलर एक विशेषज्ञ होने के कारण बेहतर सुझाव और समाधान प्रदान कर सकता है।

2. उचित जानकारी की उपलब्धता परामर्श प्रक्रिया का केंद्र बिंदु होती है।

3. परामर्शदाता क्लाइंट की तुलना में परामर्श प्रक्रिया में अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय भूमिका निभाता है।

4. क्लाइंट से सम्बंधित समस्या के सम्बन्ध में काउंसलर ही निर्णय लेता है।

निर्देशात्मक परामर्श के चरण                                     

1. विश्लेषण - क्लाइंट से एकत्र की गई जानकारी का सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया जाता है।

2. संश्लेषण - एकत्र किए गए डेटा को क्लाइंट के सामर्थ्य और कमजोरियों को समझने के लिए व्यवस्थित किया जाता है।

3. निदान - क्लाइंट  की समस्या की प्रकृति और कारणों के बारे में निष्कर्ष निकला जाता है।

4. पूर्वानुमान - क्लाइंट की समस्या के घटित होने की संभावना के बारे में भविष्यवाणी।

5. परामर्श - समस्या के समाधान के अनुरूप समायोजन और संबंधित व्यवहार में आवयसक संसोधन।

6. अनुवर्ती - यह परामर्श प्रक्रिया के बाद का चरण होता है जहां परामर्शी की समस्या के साथ उसके समायोजन के लिए निगरानी की जाती है और यह सुनिश्चित किया जाता है कि समस्या दोबारा से उत्पन्न हो।

 

2.         गैर-निर्देशात्मक परामर्शगैर-निदेशक परामर्श कार्ल रोजर्स द्वारा प्रस्तावित की गई थी। एनडीसी को क्लाइंट केंद्रित परामर्श या चिकित्सा के रूप में भी जाना जाता है। काउंसलर से गैर-निर्णयात्मक और सम्पूर्ण स्वीकृति दृष्टिकोण के सूत्रधार की भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती है। परामर्शदाता से अपेक्षा की जाती है कि वह एक दर्पण के रूप में कार्य करे, जो क्लाइंट की व्यवहारिक और संवेगात्मक परेशानियों  को दर्शाता हो। दोनों के  बीच तालमेल होना चाहिए और काउंसलर को क्लाइंट के प्रति बिना शर्त सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए। क्लाइंट और काउंसलर के बीच का रिश्ता आपसी आत्म-प्रतिबद्धता का होता है। इसका उद्देश्य क्लाइंट में मनोवैज्ञानिक विकास, परिपक्वता और सकारात्मक विकास की और निर्देशित करना होता है। क्लाइंट को योजना बनाने, निर्णय लेने और योजनाओं को सफलतापूर्वक निष्पादित करने में सक्षम बनाया जाता है। इसे अनुमेय परामर्श के रूप में भी जाना जाता है।

गैर -निर्देशात्मक परामर्श की मान्यताएँ

1. इसकी प्राथमिकता परामर्शी की संतुष्टि होती है।

2. परामर्शी को अपने जीवन सम्बन्धी लक्ष्यों को चुनने का अधिकार होता है।

3. परामर्शदाता  एक प्रकार से  निष्क्रिय भूमिका निभाता है।

4. परामर्शी को यथार्थीकरण एवं आत्मानुभूति तक ले जाना ही लक्ष्य होता है।

5. मनुष्य की गरिमा में विश्वास।

6. संवेगात्मक अशांति शुरू में व्यक्ति के उचित समायोजन एवं अनुकूलन को बाधित करती है।

7. शीघ्रतम उस बिंदु पर पहुंच जाना चाहिए

जहां से  परामर्शी  स्वतंत्र रूप से कार्य करने में सक्षम हो सके।

गैर -निर्देशात्मक परामर्श के चरण                                          

कार्ल रोजर्स के अनुसार

1. समस्याग्रस्त स्थिति को परिभाषित करना - परामर्शदाता को शुरुआत में ही समस्यात्मक स्थिति को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर लेना चाहिए।

2. भावनाओं की मुक्त अभिव्यक्ति - सेवार्थी को इस बात से अवगत कराया जाना चाहिए कि वह अपनी भावनाओं एवं विचारों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सकता है।

3. अंतर्दृष्टि का विकास - परामर्शदाता को सेवार्थी की भावनाओं का विश्लेषण करना होता है जिससे वह उनको समझकर परामर्शी की अंतर्दृष्टि के विकास में योगदान दे सके।

4. सकारात्मक और नकारात्मक संवेगों का वर्गीकरण - परामर्शी द्वारा संवेगों एवं भावनाओं  की मुक्त अभिव्यक्ति के बाद, परामर्शदाता वर्गीकरण के लिए  नकारात्मक और सकारात्मक संवेदनाओं की पहचान करता है।

5. परामर्श की स्थिति की समाप्ति - अंत में परामर्शदाता एक ऐसे मोड़ की तलाश करता है जहां वह परामर्श प्रक्रिया को सौम्यता के साथ समाप्त कर सके।

 

3.         उदार या सहकारी  (Eclectic or cooperative) परामर्श         ब्रैमर (1969) के अनुसार यह विभिन्न सिद्धांतों में से चयनित उपयुक्त प्रक्रिया को दर्षात है। परामर्शदाता अपने विवेक अनुसार उपलब्ध वयवस्थायों में से उस व्यवस्था का चयन करता है जो उसे परामर्शी के वर्तमान व्यवहार एवं समस्या के अनुसार उसे सर्वश्रेष्ठ लगती हो।  थॉर्न (1950) ने कहा कि परामर्श के लिए एक्लेक्टिजम (उदारवाद) सबसे व्यावहारिक और उपयुक्त दृष्टिकोण होता है। उन्होंने इसे एकीकृत मनःशास्त्र कहा। यह एक व्यक्तिगत और कस्टम मेड परामर्श तकनीक होती है जिसे समस्या की विशिष्टता और परामर्शी की व्यक्तिगत जरूरतों की तीव्रता के अनुरूप डिज़ाइन किया जाता  है। इस तकनीक में काउंसलर तो अत्यंत  सक्रिय और ही अत्यंत निष्क्रिय होता है।

             थोर्न 'मनोचिकित्सा' के स्थान पर 'साइकोलॉजिकल केस हैंडलिंग' शब्द का   (राव, 2004) इस्तेमाल करना पसंद करते हैं। क्योंकि उनको ये शब्द अधिक व्यापक लगता  है। थॉर्न के अनुसार इस तकनीक के निम्नलिखित उद्देश्य हैं: -

(i) अपवृद्धि को रोकना,

(ii) एटियलॉजिकल कारकों की पहचान करके उनमें सुधर करना  जिससे पुनरावृत्ति को रोका जा सके।

(iii) व्यक्तित्व विकास में योगदान

(iv) संवेगों को व्यक्त करने और स्पष्ट रूप से समझने में मदद करना।

(v) द्वंद्वों एवं मानसकि विसंगतियां के समाधान में मदद करना।

(vi) जो बदला नहीं जा सकता उसे स्वीकार करने के लिए व्यक्ति को सक्षम बनाना तथा असाधय को सहना करने के लिए यथार्थ से सामना करवाना।

(vii) आत्मबोध के लिए दृष्टिकोण में परिवर्तन।

उदार या सहकारी परामर्श की मान्यताएँ

1. परामर्शी से एकत्र की गई जानकारी परामर्श तकनीक के चयन के लिए आधार बनती है।

2. जानकारी विभिन्न माध्यमों जैसे परामर्श साक्षात्कार, माता-पिता और दोस्तों से, मनोवैज्ञानिक परीक्षण आदि का उपयोग करके एकत्र की जाती है।

 

3. परामर्शी की इच्छा और चाहत परामर्श प्रक्रिया की शुरुआत से पहले महत्वपूर्ण आवश्यकताएं होती है।

4. अनुकूल वातावरण और परिस्थितियाँ परामर्शी को समस्याओं से निपटने के लिए अंतर्दृष्टि प्राप्त करने में मदद करती हैं।

5. उपयुक्त परामर्श प्रक्रिया का चयन और डिजाइन परामर्शी से एकत्रित की गई जानकारी के विश्लेषण के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों पर निर्भर होती है।

 

उदार या सहकारी परामर्श  के चरण

 

थॉर्न ने निम्नलिखित चरण सुझाये हैं: -

 

1. निदान - परामर्शी की समस्या की पूरी तस्वीर खींचने के लिए एक व्यवस्थित प्रक्रिया।

2. तैयारी - उसके सामर्थ्य और कमजोरियों  को समझकर एक अस्थायी योजना तैयार करना।

3. सटीक कारणों का पता लगाना - सतही लक्षणों पर ध्यान देने के बजाय मूल या अंतर्निहित कारणों पर ध्यान केंद्रित करना।

4. विधि का चयन - परामर्शी की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुकूल एक विशिष्ट विधि का  चयन/डिजाइन करना।

5. मूल्यांकन - चयनित विधि  के आधार पर परिणामों का

 मूल्यांकन करना

6. विश्लेषण - डेटा का वैज्ञानिक विश्लेषण  और परिणामों का मूल्यांकन।

 

सन्दर्भ:

1.         http://www.publishyourarticles.net/knowledgehub/education/what-is-non-directive-Counselling/5380/.

2.         https://www.oum.edu.my/pages/prospective/prospective/ pdf/HMEF5063%20T1.pdf.

3.         Rao, S. N. (2004). Counselling and Guidance. New Delhi: Tata McGraw Hills.

4.         http://www.bruntsfieldmedicalpractice.co.uk/documents/ Counselling%20Modalities%20Information%20Leaflet.pdf.

5.         https://kaamchalao.wordpress.com/2016/11/13/eclectic-counselling.

 

 

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