मानव विकास की अवधारणा
मानव विकास भारतीय साहित्य के परिप्रेक्ष्य से भगवत गीता: 2.28 - "सभी शरीर शुरुआत में अव्यक्त थे, वे मध्य में प्रकट होते हैं, हे भरत ! और अंत में वे फिर से अव्यक्त हो जाएंगे, तो तुम इस बारे में क्यों शोक करते हो "।
इसका अर्थ है कि जीवन शून्य से जन्म लेता है, मध्य में खुद प्रकट होता है और अंत में शून्य में ही विलीन हो जाता है। 'स्वयं प्रकट होना' वह जगह है जहां नौ द्वार (भ.गी.: 5.13) वाले घर में विकास प्रफुल्लित होता है। अभिव्यक्ति काल में 'मन' पर नियंत्रण और उसके शुद्धिकरण को विकास की प्रक्रिया के दौरान सबसे महत्वपूर्ण माना गया है।
भगवत गीता: 13.6 - गतिविधियों का क्षेत्र (शरीर) पांच महान तत्वों, अहंकार, बुद्धि, अप्रकट आदिकालीन तत्त्व (प्रकृति), इंद्रियों की पांच वस्तुओं, ग्यारह इंद्रियों (दशैकं) (पांच ज्ञान इंद्रियां, पांच काम करने वाली इंद्रियां और मन ) से बना है।
(i) पंच-महाभूत (पांच सकल तत्व – पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, और अंतरिक्ष),
(ii) पांच ज्ञान इंद्रियां (कान, आंखें, जीभ, त्वचा, और नाक),
(iii) पांच काम करने वाली इंद्रियां (आवाज, हाथ, पैर, जननांग, और गुदा), और
(iv) मन।
भगवत गीता: 13.7 -
इच्छा द्वेष, सुख, दुःख, संघात जीवन के लक्षण तथा धैर्य इन सब को संक्षेप में कर्म का क्षेत्र तथा उसकी अंतः क्रियाएं, (विकार) कहा जाता है।
शरीर एक गतिविधियों का क्षेत्र है। यह मृत्यु तक छह परिवर्तनों से गुजरता है
(i) अस्थि (अस्तित्व में आना)
(ii) जायते (जन्म)
(iii) वर्धते (विकास),
(iv) विपारिनमते (प्रजनन),
(v) अपकक्षयते (उम्र के साथ झुकाव),
(vi) विनाशयति (मौत)।
यह (शरीर) अपने लिए खुशी की खोज में आत्मा का समर्थन करता है।
मनोवैज्ञानिक जिन्होंने मानव विकास का
अध्ययन किया
(i) Jean
Piaget (संज्ञानात्मक विकास),
(ii) Urie
Bronfenbrenner (विकास का प्रासंगिक दृश्य)
(iii) Lev Vygotsky (सामाजिक विकास सिद्धांत),
(iv) दुर्गानंद सिन्हा (पारिस्थितिक मॉडल),
(v) Harry
Frederick Harlow (सामाजिक और संज्ञानात्मक विकास पर अनुलग्नक का प्रभाव)
(vi) Erik
Erikson (मनोवैज्ञानिक विकास), और
(vii) Lawrence Kohlberg (नैतिक विकास)।
विकास का अर्थ
गर्भ से लेकर जन्म और वृद्धावस्था तक मनुष्य
के जीवन में क्रमिक, गुणात्मक और मात्रात्मक परिवर्तन या जीवन के दौरान नए चरणों को प्राप्त
करना ही विकास का अर्थ होता है। विकास एक संरचनात्मक और कार्यात्मक प्रवाह होता है जो जीवन के चक्र को
प्रवाहमान बनाय रखता है। पूरी पृथ्वी पर विकास का स्वरूप एक समान होता है लेकिन
इसकी अभिव्यक्ति प्रत्येक इंसान में अद्वितीय होती है।
विकास
के प्रमुख चरण
(i) प्रसवपूर्व
चरण (40 सप्ताह / 9 महीने)
(ii) शिशु
(2 साल तक)
(iii) बचपन
(3 से 11 वर्ष)
(iv) किशोरावस्था
(12 से 17 वर्ष)
(v) वयस्कता
(18 से 60 वर्ष)
(vi) वृद्धावस्था
(> 60 वर्ष)
परिभाषा - "विकास प्रगतिशील, व्यवस्थित, और अनुमानित परिवर्तनों का एक
स्वरूप होता है जो
गर्भधारण से शुरू होकर जीवनपर्यन्त
चलता है"। इसमें मनुष्य के शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक क्षेत्रों में वृद्धि और गिरावट
दोनों शामिल
होती हैं।
विकास के कुछ उदाहरण
(i) शारीरिक
- मांसपेशियों और हड्डियों के सामर्थ्य में परिवर्तन आदि।
(ii) मनोवैज्ञानिक
- संज्ञानात्मक प्रणाली में परिवर्तन जैसे सोचने की प्रक्रिया में, समस्या समाधान की
क्षमता में, अवधान और अवधारणात्मक प्रक्रिया में इत्यादि।
(iii) सामाजिक
- पारस्परिक संबंधों, सामाजिक अनुकूलन, सामाजिक व्यवहार आदि में परिवर्तन।
विकास कोई अलग घटना नहीं होती बल्कि यह जैविक,
सामाजिक-भावनात्मक, और संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं की अंतःक्रिया का परिणाम होती है।
(i) जैविक
- माता-पिता से विरासत में प्राप्त जीन, व्यक्ति की ऊंचाई, वजन, मस्तिष्क, दिल, फेफड़ों,
और शारीरिक विशेषताओं के विकास को प्रभावित करते हैं जो जैविक प्रक्रियाओं के तहत आते
हैं।
(ii) संज्ञानात्मक - मानसिक संकाय में परिवर्तन जैसे
स्मृति, अभिज्ञान, समझना आदि।
(iii) सामाजिक-भावनात्मक - सामाजिक अंतःक्रिया, भावनात्मक
प्रतिक्रिया और व्यक्तित्व में परिवर्तन आदि। उदाहरण के लिए प्रतिस्पर्धा आदि में हारने
पर किशोर द्वारा दुख अभिव्यक्ति करना।
विकास का जीवन काल परिप्रेक्ष्य
(i) विकास
जीवन जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया होती है (वृद्धि और ह्रास)।
(ii) विकास
बहुआयामी होता है।
(iii) विकास
का स्वरूप अत्यधिक लचीला होता है यानी इसमें सुधार की संभावना होती है (कौशल और क्षमताओं
में सुधार किया जा सकता है)
(iv) विकास ऐतिहासिक स्थितियों से प्रभावित होता है।
उदाहरण के लिए भारत में स्वतंत्रता संग्राम के समकालीन वाले 20 साल के व्यक्तियों के
अनुभव आज के 20 साल के व्यक्तियों के अनुभवों से बहुत अलग होंगे।
(v) विकास
का समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, मानव विज्ञान, तंत्रिका विज्ञान आदि द्वारा अध्ययन किया
जाता है।
(vi) व्यक्ति
की प्रतिक्रिया संदर्भ आधारित होती है यानी व्यक्ति अपनी विरासत, तत्काल पर्यावरण,
सामाजिक स्थिति और सांस्कृतिक कारकों के आधार पर प्रतिक्रिया देता है।
प्रमुख परिभाषाएं
(i) विकास
- एक प्रक्रिया जिसके द्वारा व्यक्ति जीवनपर्यन्त बढ़ता और बदलता है।
(ii) संवृद्धि
- यह शरीर के अंगों के आकार में वृद्धि या उनके पूरी तरह संगठित होने को दर्शाता है।
इसे मापा या मात्राबद्ध भी किया जा सकता है।
(iii) परिपक्वता
- यह उन परिवर्तनों को संदर्भित करता है जो क्रमिक अनुक्रम का पालन करते हैं और
बड़े पैमाने पर अनुवांशिक खाके द्वारा निर्धारित किए जाते हैं जो विकास में समानताएं
उत्पन्न करते हैं।
(iv) क्रमविकास
- यह प्रजातियों के विशिष्ट परिवर्तनों को संदर्भित करता है। उदाहरण के लिए 1.4 करोड़
वर्ष पहले महान वानरों से मनुष्यों का उद्भव।
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