Monday, March 30, 2020

मनो-भौतिकी की प्राचीनतम (क्लासिकल) विधियाँ


अर्थ
          मनो-भौतिकी (साइकोफिजिक्स) शब्द मनोविज्ञान और भौतिकी से बना है अर्थात  मनोविज्ञान + भौतिकी।
          मनोविज्ञान = एक व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक गुण (विशेष रूप से संवेदना और प्रत्यक्षण)
भौतिकी = उद्दीपक के भौतिक गुण
          अर्थात मनोवैज्ञानिक घटना (phenomenon ) और एक उद्दीपक के भौतिक गुणों के बीच संबंध का अध्ययन।

परिभाषा
          मनोविज्ञान की वो शाखा जो एक मनोवैज्ञानिक घटना और एक उद्दीपक के भौतिक गुणों के बीच संबंध का अध्ययन करती है।

          उद्दीपकों और उनसे उत्पन्न होने वाली संवेदनाओं के बीच संबंध का अध्ययन करने वाली विद्याशाखा को मनो-भौतिकी कहा जाता है (NCERT, XI)

          "एक व्यक्ति के अनुभव या व्यवहार पर किसी उद्दीपक के एक या उससे अधिक भौतिक आयामों पर उसके गुणों में व्यवस्थित रूप से परिवर्तन के प्रभाव के अध्ययन द्वारा प्रत्यक्षणात्मक प्रक्रियाओं का विश्लेषण " (Bruce et. Al 1996 quoted by Wikipedia)

परिचय
          फैकनर ने उद्दीपक की तीव्रता और और उसके फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले प्रत्यक्षण के बीच संबंध को मापने के लिए तीन विधियों का विकास किया। इन विधियों को मनो-भौतिकी की प्राचीनतम विधियाँ कहा जाता है और किसी उद्दीपक की सीमा या देहली को मापने के लिए प्रयोग किया जाता है। दहलीज, उद्दीपक का वह मूल्य होता है जो 50% प्रयासों में बोधगम्य होता हो। इन विधियों का उपयोग उद्दीपक की निरपेक्ष सीमा या देहली एवं भेद सीमा या देहली के मापन के लिए किया जाता है (Gescheider, 1997, p-45)    

विधियाँ
           तीन विधियाँ इस प्रकार हैं: -
1.       सतत उद्दीपन विधि (Method of Constant stimuli)
2.       सीमान्त विधि (Method of Limits)
3.       समायोजन विधि (Method of Adjustment)


1.       सतत उद्दीपन विधिइस विधि में निश्चित मूल्य के उद्दीपकों का एक ऐसा सेट जिनमें से कुछ का मूल्य दहलीज से ऊपर और कुछ का दहलीज से नीचे होता है का बार-बार उपयोग किया जाता है (इस प्रक्रिया के दौरान Gescheider  ने किसी भी उद्दीपक के पांच और नौ अलग-अलग मूल्यों की सलाह दी है)। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति को 60 db की बेस ध्वनि सुनाई जाती है। उसके बाद व्यक्ति को समान वृद्धि के साथ पांच अलग-अलग स्तरों की ध्वनियों (40 db, 80 db, 70 db, 30 db, 50 db) को यादृच्छिक क्रम में प्रस्तुत किया जा सकता है। व्यक्ति की दर्ज की गई प्रतिक्रियाओं में से सही प्रतिक्रियाओं का प्रतिशत निकाल कर उनका एक ग्राफ बनाया जाता है।  उद्दीपक की तीव्रता को X-अक्ष पर जबकि सही प्रतिक्रियाओं का प्रतिशत Y-अक्ष पर दर्शाया जाता है। ग्राफ द्वारा दर्शाए गए बिंदुओं को एक रेखा से आपस में जोड़ा जाता है जिससे निरपेक्ष सीमा या निरपेक्ष देहली की गणना की जाती है। इस विधि के माध्यम से भेद सीमा या भेद देहली अथवा पहचानने योग्य न्यूनतम अंतर (Just Noticeable Difference or JND) के मापन के लिए भी किया जाता है।

2.       सीमान्त विधिइसका अर्थ है किसी उद्दीपक की खोज सीमा (Detection limit) का पता लगा कर उसे निर्धारित करना। इस पद्धति में उद्दीपक के मूल्यों को आरोही या अवरोही क्रम में से किसी भी क्रम में प्रस्तुत किया जा सकता है।
- आरोही क्रम का अर्थ है कि उद्दीपक की प्रस्तुति कम तीव्रता के साथ शुरू होती हो और धीरे-धीरे छोटी एवं समान वृद्धि के साथ तीव्रता को तब तक बढ़ाते जाना जब तक व्यक्ति कुल प्रतिक्रियाओं का 50% सही-सही नहीं बता पाता।
- अवरोही क्रम का अर्थ है कि उद्दीपक की प्रस्तुति उच्च तीव्रता के साथ शुरू होती हो और धीरे-धीरे छोटी एवं समान दर से तीव्रता में तब तक कमी करते जाना जब तक व्यक्ति कुल प्रतिक्रियाओं का 50% सही-सही नहीं बता पाता या कुल प्रतिक्रियाओं में से 50% बार गलत प्रतिक्रिया देता है।


          इस पद्धति का उपयोग आम तौर पर श्रवणमिति (Audieometry) में किया जाता है (Gescheider, 1997, p-55).


इस विधि में 3 भिन्न-भिन्न निम्नलिखित तकनीकों का उपयोग किया जाता है

(i)       ऊपर-नीचे या सीढ़ीनुमाइसका उपयोग परिवर्तन (Transition) बिंदुओं का पता लगाने के लिए किया जाता है (वो मूल्य जहाँ व्यक्ति प्रतिलोम प्रतिक्रिया देता है) परिवर्तन (Transition) बिंदुओं के औसत को देहली या सीमा के रूप में जाना जाता है।     

(ii)      सीमान्त की निगरानी (Threshold Tracking)यह वाक्यांश सर्वप्रथम 1947 में बेकेसी द्वारा उपयोग किया गया था। इस तकनीक में उद्दीपक की तीव्रता में तबदीली (Variation) को प्रतिभागी (subject) द्वारा नियंत्रित किया जाता है। जब तक प्रतिभागी बटन को दबाये रहता है उद्दीपक की तीव्रता धीरे-धीरे कम होती जाती है और जैसे ही प्रतिभागी बटन को छोड़ देता है उद्दीपक की तीव्रता धीरे-धीरे बढ़ने लगती है। प्रयोग प्रतिभागी द्वारा बटन को दबाकर या छोड़कर शुरू किया जा सकता है। यदि प्रयोग बटन को दबाकर शुरू किया जाता है, तो उद्दीपक की तीव्रता धीरे-धीरे कम हो जाएगी तब तक कम होती जाएगी जब तक उद्दीपक की तीव्रता पूर्ण रूप से लुप्त नहीं हो जाती। ऐसी स्थिति में प्रतिभागी बटन को छोड़ देता है और उद्दीपक की तीव्रता धीरे-धीरे बढ़नी शुरू हो जाती है और तब तक बढ़ती रहती है जब तक उद्दीपक पहचानने योग्य नहीं हो जाता है। इस बिंदु पर पहुंचने के बाद प्रतिभागी को फिर से बटन दबाना होता है, और ये प्रक्रिया जारी रहती है (Gescheider, 1997, p-60)


(iii)     मजबूरन चयन (Forced Choice)सबसे पहले 1953 में ब्लैकवेल द्वारा उपयोग किया गया था (दृष्टि) और जोन्स द्वारा 1956 में (स्वाद और गंध). मजबूरन चयन दो प्रकार का हो सकता है अर्थात सामयिक या कालिक (Temporal) एव स्थानिक (Spatial).
          (a)      सामयिक या कालिक मजबूरन चयन (Temporal Forced Choice)इस प्रकार के चयन में प्रतिभागी को एक अनुक्रम में 4 सूचनाओं का एक सेट प्रस्तुत किया जाता है।      प्रतिभागी को यह बताना होता है कि कौन सी सूचना में उद्दीपक समाविष्ट है।
          (b)      स्थानिक मजबूरन चयन (Spatial Forced Choice)इस प्रकार के चयन में           प्रतिभागी को साथ सूचना एक साथ (Simultaneously) प्रस्तुत की जाती है। आमतौर पर, प्रतिभागी को 4 चतुर्थांश (Quadrants) प्रस्तुत किये जाते हैं जिसमें से एक चतुर्थांश में उद्दीपक समाविष्ट होता है। प्रतिभागी को ये बताना होता है की किस चतुर्थांश में  उद्दीपक समाविष्ट होता है। प्रतिभागी की लगातार दो सही प्रतिक्रियाओं को उद्दीपक की दहलीज के रूप में माना जाता है (Gescheider, 1997, p-62)

3.       समायोजन विधि (Method of Adjustment)इसे औसत त्रुटि विधि  भी कहा जाता है। यह विधि मूल रूप से पहचानने योग्य न्यूनतम अंतर (Just Noticeable Difference or JND) या विभेदन सीमा का आकलन करने के लिए उपयोग की जाती है, लेकिन निरपेक्ष सीमा या निरपेक्ष देहली के लिए प्रयोग की जा सकती है। इस विधि में प्रतिभागी ही उद्दीपक की तीव्रता को नियंत्रित करता है। प्रयोग की शुरुआत में उद्दीपक बहुत कम या बहुत अधिक तीव्रता पर किया जाता है, प्रतिभागी उद्दीपक की तीव्रता को तब तक बदलता रहता है जब तक वह बोधगम्य न हो जाए या पूरी तरह से लुप्त न हो जाये। प्रत्यक्षण या लुप्त होने के लिए प्रतिभागी द्वारा सुझाई गई सेटिंग्स को निरपेक्ष सीमा के रूप में समझा जाता है। भेद सीमा या भेद देहली, का आकलन करते हुए प्रतिभागी को उद्दीपक की तीव्रता को उस समय तक समायोजित करने के लिए कहा जाता है जब तक कि वह विभेदक (Differentiable) हो जाए। प्रतिभागी द्वारा निर्धारित उद्दीपक की सभी तीव्रताओं के औसत को जेएनडी या विभेदक सीमा के रूप में समझा जाता है।


प्राचीनतम विधियों का उपयोग
इन विधियों का उपयोग निम्नलिखित को मापने के लिए किया जाता है:-  

(i)       निरपेक्ष सीमा या निरपेक्ष देहली (Absolute threshold or limen, AL)मानव संवेदी प्रणाली द्वारा पहचानने या प्रत्यक्षण करने के लिए उद्दीपक की न्यूनतम मात्रा, तीव्रता, मूल्य या वजन।
(ii)      भेद सीमा या भेद देहली (Differential threshold of limen, DL) दो उद्दीपकों के मूल्यों में वो सबसे छोटा अंतर जो उनके बीच के अंतर का पता लगाने में मदद करता है। इसे पहचानने योग्य न्यूनतम अंतर (Just Noticeable Difference or JND) भी कहा जाता है।

सन्दर्भ:
1.       Gescheider, G. A. (1997). Psychophysics: The Fundamentals. Psychology Press.
2.       Bruce. V., Green, P. R. & Georgeson, M. A. (1996). Visual perception (3rd ed.). Psychology Press.
3.       https://www.britannica.com/science/Webers-law.
4.       https://en.wikipedia.org/wiki/Psychophysics.
5.       https://www.britannica.com/science/ psychophysics.

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