परिभाषा
“मनोविज्ञान व्यवहार प्रबंधन का वैज्ञानिक अध्ययन है” (डॉ राजेश वर्मा)
“मनोविज्ञान को मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों और विभिन्न संदर्भों में व्यवहारों का अध्ययन करने वाले विज्ञान के रूप में परिभाषित किया गया है”(एन सी ईआर टी, XI).
“मनोविज्ञान मानसिक जीवन की घटना और स्थिति दोनों के अध्ययन का विज्ञान है” (विलियम जेम्स, 1880).
मनोविज्ञान की औपचारिक शुरुआत
मनोविज्ञान ने अपनी औपचारिक यात्रा 1879 में लीपज़िग में विल्हेम वुंड्ट द्वारा प्रयोगशाला खोलने के साथ शुरू की। यह 'संरचनावाद' (आत्मनिरीक्षण के माध्यम से मन की संरचना का विश्लेषण) की शुरुआत का समय था। संरचनावाद की
अवधारणा को कुछ मनोवैज्ञानिकों ने ख़ारिज कर
दिया, जिसके परिणामस्वरूप कैम्ब्रिज में एक नई प्रयोगशाला का जन्म हुआ। मन का अध्ययन
करने के लिए एक नया दृष्टिकोण (विलियम जेम्स, 1890) अस्तित्व में आया जिसे ‘प्रकार्यवाद’
(व्यवहार में मन की भूमिका) कहा गया।
मनोविज्ञान की इस विकास यात्रा में एक क्रांतिकारी विचार की शुरुआत हुई जिसे 'मनोविश्लेषण’ (मनोवैज्ञानिक विकारों को समझने और उसे ठीक करने की प्रणाली) के रूप में जाना जाता है जिसे सिगमंड फ्रायड ने 1900 में प्रतिपादित किया। उन्होंने सुझाव दिया कि मानव व्यवहार अचेतन इच्छाओं और संघर्षों की एक गतिशील अभिव्यक्ति होती है।
फिर आई ‘गेस्टाल्ट साइकोलॉजी’ (कोहलर, कोफ्का और वर्दाइमर, 1920) की नई अवधारणा जिसके अनुसार अंश मिलकर सम्पूर्णता का निर्माण करते हैं, परन्तु सम्पूर्णता की विशेषताएं अंश की विशेषताओं से भिन्न होती हैं।
1913 में जॉन वॉटसन ने 'व्यवहारवाद' नामक अवधारणा की शुरुआत की जिसका अर्थ है कि उसी प्रक्रिया पर ध्यान देना जिसका प्रेक्षण किया जा सके और उसकी सत्यता को भी परखा जा सके। उन्होंने मनोविज्ञान को व्यवहार या प्रतिक्रियाओं के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया, जिसको उद्देश्यपूर्ण तरीके से मापा और अध्ययन किया जा सकता है। उनके अनुसार मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान है। बी. एफ. स्किनर जिन्हे एक कट्टर व्यवहारवादी माना जाता है ने व्यवहारवाद के सिद्धांत को अधिक परिष्कृत स्वरूप प्रदान किया।
विकास की इस यात्रा में एक और अवधारणा का प्रादुर्भाव हुआ जिसे ‘मानवतावादी अवधारणा’
के नाम से जाना जाता है। इस दृष्टिकोण का अर्थ है की मनुष्य की स्वतंत्र इच्छा और उनकी आंतरिक क्षमता को बढ़ने और प्रकट करने का उसका स्वभाव। इसका प्रतिपादन कार्ल रोजर्स (1951) और अब्राहम मेस्लो (1954) ने किया।
संरचनावाद और
गेस्टाल्ट दृष्टिकोण के संयोजन ने
‘संज्ञानात्मक परिप्रेक्ष्य’ (जानने की प्रक्रिया) के विकास की नींव रखी जहाँ मानव मन को कंप्यूटर के समान सूचना प्रसंस्करण प्रणाली के रूप में देखा जाता है।
आधुनिक संज्ञानात्मक मनोविज्ञान का मानना है कि मनुष्य के शारीरिक और सामाजिक संबंधों के माध्यम से मन का निर्माण सक्रिय रूप से किया जा सकता है। पियाजे का ‘संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत’ रचनात्मक सिद्धांत का एक नमूना है। वाइ़गोटस्कि ने बताया है कि मानव का संज्ञानात्मक विकास सामाजिक और सांस्कृतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से होता है जो कि वयस्क और बच्चे के बीच अंतःक्रिया से संभव हो पाता है।
इस प्रकार कई दृष्टिकोणों के योगदान के परिणामस्वरूप मनोविज्ञान की विकास यात्रा दो समानांतर धाराओं के साथ शुरू हुई।
भारत में मनोविज्ञान की शुरुआत
भारत में ‘दर्शन’ की एक समृद्ध विरासत है जो मुख्य रूप से स्वयं और इसके विभिन्न संदर्भों पर केंद्रित है। भारतीय दर्शन चेतना के साथ-साथ विभिन्न मानसिक कार्यों जैसे अनुभूति, प्रत्यक्षण, भ्रम, ध्यान और तर्क के अन्वेषण पर केंद्रित है (NCERT). इतना समृद्ध साहित्य
होने के बावजूद यह आधुनिक मनोविज्ञान को प्रभावित नहीं कर सका।
भारत में मनोविज्ञान की पहली प्रयोगशाला की स्थापना 1915 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में हुई थी। 1916 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने मनोविज्ञान का स्वतंत्र विभाग शुरू किया। डॉ. एन. एन. सेनगुप्ता और प्रोफेसर जी. बोस भारत में मनोविज्ञान की स्थापना करने वालों में अग्रणी थे। उसके बाद 1924 में मैसूर (डॉ. एम. वी. गोपालस्वामी जिन्होंने चार्ल्स स्पीयरमैन के साथ पीएचडी की थी) और 1946 में पटना विश्वविद्यालय ने भी मनोविज्ञान पाठ्यक्रम शुरू किया। वर्तमान में पूरे भारत में लगभग 70 विश्वविद्यालयों में
मनोविज्ञान पर शोध और पठन का कार्य चल रहा है।
प्रोफेसर दुर्गानंद सिन्हा ने अपनी पुस्तक "साइकोलॉजी इन थर्ड वर्ल्ड कंट्री: द इंडियन एक्सपीरियंस इन 1986" में भारत में मनोविज्ञान के विकास के इतिहास का वर्णन किया है। उन्होंने भारत में मनोविज्ञान की यात्रा को चार चरणों में विभाजित किया है।
प्रथम चरण - आजादी तक
– इस दौरान मुख्य जोर प्रयोगात्मक, मनोविश्लेषणात्मक और मनोवैज्ञानिक परीक्षण पर था।
द्वितीय चरण - 1960 तक
– विभिन्न शाखाओं में मनोविज्ञान का विस्तार जहां भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने भारतीय
परिस्थितियों को समझने के लिए पश्चिमी विचारों
को अपनाया।
तृतीय चरण - 1960 के दशक के बाद – यह चरण समस्या-उन्मुख अनुसंधान का चरण था जहां भारतीय
समस्याओं के समाधान पर जोर दिया गया था। भारतीय साहित्य का मनोविज्ञान में योगदान का
अहसास भी इस चरण के दौरान हुआ।
चौथा चरण - 1970 के दशक के अंत से – इसे मनोविज्ञान
में अपनी एक भारतीय पहचान की खोज का चरण भी कहा जाता है । इसी दौरान भारतीय ग्रंथों,
शास्त्रों औरपरंपरागत ज्ञानपर आधारित नए दृष्टिकोण का विकास हुआ।
वर्तमान
स्थिति
भारत में मनोविज्ञान का विस्तार लगभग प्रत्येक क्षेत्र
में हुआ है। इसके सिद्धांत और निष्कर्ष विभिन्न क्षेत्रों में लागू किए जा रहे हैं,
जैसे कि स्कूल, शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान, अस्पताल, सैन्य, संगठन, विश्वविद्यालय, अनुसंधान
संस्थान, खेल, उद्योग और आईटी सेक्टर आदि। आज मनोविज्ञान हर क्षेत्र में अपनी उपयोगिता
साबित कर रहा है जो इसके सुनहरे भविष्य की तरफ इशारा है।
संदर्भ
:
1. NCERT,
XI Psychology Text book.
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