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संवेगात्मक विकास: भगवद गीता और संवेग - I
“हालांकि भावनाएं बहुत अच्छी सूचना देने वाली होती हैं, लेकिन वे अच्छे सलाहकार नहीं होती हैं”
– Carl E
Pickhardt (2010)
“संवेगों ने मानव जाति को तर्क करना सिखाया है”.
– Marquis de
Vauvenargues
“संवेग संवेदी सूचनाओं की उपज होती हैं”
- Dr. Rajes Verma
भगवद गीता और संवेग
गीता हमें संवेगों से बिना परेशान हुए उन पर सम्पूर्ण (आंतरिक और बाहरी) नियंत्रण (2.15) करना सिखाती है। एक व्यक्ति को अपने स्वभाव, स्थिति और लोगों को ध्यान में रखते हुए अपने संवेगों को प्रदर्शित करना चाहिए।
“इन्द्रियविषयों संबंधित चिंतन और उनकी संतुष्टि व्यक्ति में आसक्ति उत्पन्न करती है। आसक्ति काम नामक संवेग को उत्पन्न करती है जो क्रोध को जन्म देती है” (2.62)।
“क्रोध से सम्पूर्ण मोह का जन्म होता है। मोह स्मृति को भ्रमित कर देता है जो बौद्धिक क्षमता को नष्ट कर देती है और अंततः व्यक्ति भव-कूप सांसारिक दुनिया में फिर से गिर जाता है” (2.63)।
इस चक्रीय प्रक्रिया में संवेग महत्वपूर्ण होते हैं। यदि वे संतुलित और अच्छी तरह से प्रबंधित किए जाएँ तो वे मुक्ति पाने में सकारात्मक भूमिका निभाते हैं और इसके विपरीत वे मुक्ति में बाधक भी साबित हो सकते हैं।
संवेग का अर्थ
इमोशन लैटिन के 'एमोवर' शब्द से निकला है जिसका अर्थ है 'हटो, हटाओ, उत्तेजित करना'। संवेग भाव प्रबोधन, आत्मनिष्ठ भावना और संज्ञानात्मक व्याख्या का एक जटिल पैटर्न होती है। यह चेतना की एक मजबूत भावनात्मक और एक स्नेहपूर्ण स्थिति होती है। संवेग मानसिक और शारीरिक अनुभूति की वो अवस्था होती है जो हमारे व्यवहार और ध्यान को निर्देशित करती है।
परिभाषा
मैकडॉगल, "संवेग सहज वृत्ति का मूल है"
वुडवर्थ, "संवेग एक जीव की एक विचलित स्थिति होती है"।
क्रो एवं क्रो के अनुसार, “संवेग एक ऐसा भावात्मक अनुभव होता है जिसके साथ-साथ व्यक्ति मे सामान्यीकृत आंतरिक समायोजन, मानसिक और शारीरिक उत्तेजना पाई जाती है, जिसे वह अपने प्रत्यक्ष व्यवहार में प्रदर्शित करता है"।
कुछ संवेग
मुख्य रूप से मनुष्य छः संवेगों अर्थात् क्रोध, घृणा, भय, खुशी, उदासी और आश्चर्य का अनुभव करते हैं।
इज़ार्ड ने दस मूल संवेग सुझाए हैं, अर्थात् आनंद, आश्चर्य, क्रोध, घृणा, अवमानना, भय, शर्म, ग्लानि, रुचि और उत्साह।
प्लुचिक ने आठ बुनियादी या प्राथमिक संवेग बताये हैं जिनको उन्होंने चार विपरीत जोड़ों यानी आनंद-दुख, स्वीकृति-घृणा, डर-गुस्सा, और आश्चर्य-प्रत्याशा में व्यवस्थित किया है।
संवेगों की विशेषताएं
सिल्वरमैन (1978) ने सुझाव दिया कि:
1. संवेग विस्तृत होते हैं – संवेगात्मक उत्तेजना शरीर में एक समान तनाव और परिवर्तन पैदा करती हैं।
2. संवेगों में निरंतरता होती है – संवेग पैदा करने वाले उद्दीपक के हटने के बाद भी संवेग काफी समय तक बने रहते हैं।
3. संवेग संचयी होते हैं – संवेग एक बार विकसित होने के बाद उनकी तीव्रता बढ़ती जाती है और वह वे व्यक्ति को प्रतिक्रिया के लिए मानसिक रूप से तैयार करते हैं।
4. संवेग प्रेरणादायी होते हैं – संवेग प्रेरणा के साथ गुंथे होते हैं और उत्तेजना पैदा करते हैं जो प्रेरणा का कारण बनते हैं। ये प्रेरणा व्यक्ति में एक प्रेरक व्यवहार को आरंभ और निर्देशित करती है। प्रेरणा व्यक्ति के लिए पुरस्कार का काम करती है और उसके व्यवहार को पुनर्बलित करती है।
सन्दर्भ :
1. https://opentextbc.ca/introductiontopsychology/chapter/chapter-10-emotions-and-motivations/
2. NCERT, XI Psychology Text book.
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